अखबार की हैडलाइन पढ़ते ही जोर की चित्कार आयी
कहीं युवती, कहीं वृद्धा या कहीं साल और छह माह की बच्ची थी ये आवाज आयी
कुंठित समाज का पहिया विध्वन्स की तरफ जा रहा है
कौन बचाएगा इस मानव रूपी सर्प से, हर पिता को यही दंश सत्ता रहा है
स्वतंत्रता अपनी बहत्तरवीं वर्षगाँठ की ओर अग्रसर हो रही है
त्रसित नारी, घुट घुट कर आज भी आजादी की बाट जोह रही है
कुछ ख़बरें राजनेताओं और अख़बारों के लिए मसाला हैं तो चर्चाए आम हैं
कहीं बलात्कार, कहीं हलाला और कितनी ही विसंगतियों से जाने कितनी बहनें आज भी कुर्बान हैं
जन्म से बधिर अभिषप्त समाज को इनकी चीत्कार सुनायी नहीं देती
व्यसन मैं लिप्त कितने भाई पिता भुला बैठे हैं बहन, रिश्ते, माँ और अपनी ही बेटी
जिस समाज के ठेकेदारों द्वारा बेटी का चरित्र उसके कपड़ो की लम्बाई से मापा जाता हो
काश उस अस्सी वर्ष की माँ और तीन माह की बेटी की भी कोई नेता टीका टिपण्णी कर पाता हो
इस कुंठित बधिर नपुंसक समाज को आजादी का शोर सुनाने किसी दिन कोई भगत सिंह, राजगुरु भी आएगा
उस दिन के इंतज़ार मैं हैं देश की बेटियां जब उन्हें स्वतंत्रता का हक़ मिल पायेगा
पुष्पेश पान्डेय
14 अगस्त 2018
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