Saturday, November 1, 2008

ज़बान नहीं है कोई..........................

आज महफिल मैं तनहा खड़ा था
तो आईने में एक शायर मिला
देखा मुझको फिर पूछा
कि क्या तुम भी लिखते हो
मैंने कहा, लिखता तो नहीं
हाँ कुछ तस्वीरे आती हैं जहन में
उन्हें कागज पे उतार लेता हूँ
उसने पूछा, ज़बान क्या है तुम्हारी
मैंने कहा
तस्वीरे हैं कुछ बीते पल की
और ख़याल कुछ लम्हों के
वो ही कागज पे उतारे हैं
ज़बान नहीं है कोई
ज़बान में लोग मजहब ले आयेंगे
और फिर उसमे कई रिश्ते भी बुन्वायेंगे
जबान नहीं है कोई, कुछ लकीरे हैं आड़ी तिरछी
दिल की नज़र से देखो तो नज़र आएँगी
देश ज़बान या किसी सरहद की मोहताज नहीं
ख़याल है जहन का कागज़ पे उतरा हुआ
दिल लगाओगे तो तस्वीर बनती ही चली जायेगी
ज़बान नहीं है कोई..........................

पुष्पेश
नवम्बर ०२/२००८