Sunday, January 31, 2010

जो कह रहा हूँ आज कविता वो मेरी नहीं

जो कह रहा हूँ आज, कविता वो मेरी नहीं, यूँ तो कभी भी नहीं होती
सिर्फ कुछ तार होते हैं यादों के उलझे से
खाली वक़्त में उन्हें ही सुलझा लेता हूँ

आज फिर एक तार ले कर बैठा, और फिर तुम सामने आ गए हो
बदला नहीं है कुछ जब सामने तुम्हे देखता हूँ
आज भी वैसे ही तो दिखते हो जैसे उन दिनों दिखा करते थे

या शायद मैं ही बूड़ा हो चला हूँ
लाख याद करता हूँ पर तुम्हारा बुडापा याद ही नहीं आता
उसी उलझी तार को पकडे बैठा हूँ, समझ नहीं आता कहाँ से शुरुआत करूँ

वक़्त कुछ रुक सा जाता है, जब कभी इन तारों को हाथ में लेता हूँ
फिर कुछ समय बाद जब वो और उलझ जाते हैं
उठा कर सम्भाल रख देता हूँ, उन्हें बंद करके अलमारी में

आज जब उसे रखने गया तो देखा, वहां तारों के कई गुच्छे पड़े हैं
एक तार में शख्स इक कोई, खड़ा मुस्कुरा रहा था
मुझे लगा ऐसे मुस्कुराते शायद ये तुम ही हो

जाने क्या सोच के तार ली हाथ में वो, और फिर सुलझाने उसे बैठ गया
इस बार वो कुछ और नहीं उलझी हाँ वो चेहरा वो कहानी कुछ पहचानी सी लगी

करीब से देखा तो ये तुम नहीं हो, ये है वो परछाई मेरे बीते दिनों की
जो हस्ती थी मुस्कुराती थी लोगों की खुशियों में उनके संग गुनगुनाती थी

अब देखता हूँ खुद को उस तार में यूँ तो पहचान नहीं पाता हूँ
क्या क्यों और कैसे इन्हीं सवालों में उलझ जाता हूँ

बड़ा खुश था ये सोच के की आज कुछ सुलझ गया
हाथ में देखा तो उस बंद अलमारी के लिए कुछ नए सवालों का इक गुच्छा उलझ गया

जीवन के बदलाव और हर आम आदमी का किस्सा है
वही कागज पे उतार रहा हूँ ये नहीं मेरा हिस्सा है

जो कह रहा हूँ आज कविता, वो मेरी नहीं

Tuesday, January 26, 2010

माँ

जन्म लेते ही पहला शब्द यही बोला था
सुख हो या दुःख उसके ही पालने में झूला था

मैं हमेशा ही कुछ न कुछ मांगता रहता
वो हस्ती और जो भी मांगता मुस्कुरा के हाथ में ला देती
कभी सोचता कि जो मांगे वो मिले ऐसी भी क्या माँ के पास जादू की छड़ी है
लाख ढूँढता पर समझ न आता की माँ की किस अलमारी क कोने मैं पड़ी है

रात हो या दिन माँ को सोते नहीं देखता
सोचता था कि हम माँ के बच्चे ही सोते हैं
माँ लोग तो सिर्फ़ प्यार करने के लिये होते हैं
कभी रात को नीद खुलती भी तो, हमेशा मुझे ठण्ड से बचाती दिखती
चादर, रजाई या कभी कम्बल उड़ाती दिखती

कभी उसे खुद के लिये कुछ मांगते या कुछ खुद के लिये करते नहीं देखता
फिर भी वो हमेशा हँसती हमेशा मुस्कुराती रहती
धूप हो या छाँव हमें अपने गले से लगाती दिखती
हमारी ख़ुशी मैं खुश हो जाती हमें चोट लगे तो वो आंसूँ बहाती दिखती

हम शायद बड़े हो गए काफी बदल गए पर वो आज भी न बदली है
जाने किस मिट्टी की बनी है वो, जहां के लोग सारे लगते उसे अपने ही बच्चे हैं
चाहे कितनी बुराई हो हममे पर हम आज भी लगते उसे अच्छे हैं
हिन्दू रोये या मुस्लिम उसकी आँख आज भी छलक आती है
कोई भी बच्चा हँसता है वो उसके साथ आज भी मुस्कुराती है

जादू की छड़ी तो नहीं, पर शायद जिस मिट्टी से वो बनी उसमें ही एक करिश्माई है
आज भी चोट लगने पर जो पहला शब्द निकलता है, उस माँ शब्द में ही सारी सृष्टि समाई है

पुष्पेश, 26 जनवरी 2010