Thursday, November 5, 2009

इश्क क्या है

इश्क क्या है
मज्हब है किसी मुल्क का
या गाली है एक समाज की
दुआ है किसी पीर की
या श्राप किसी साधू का

जीने वाले तो इसे मज्हब की तरह जीते हैं
दुनिया वाले इसे एक गाली समझते हैं
और इश्क करने वाले दीवाने, दुआ किसी फ़कीर की

जाने क्या बात है इसमें, हर लम्हा दर्द चाहता है
फिर भी ये वो नशा है जो कोई दीवाना छोड़ने को तैयार नहीं
जब साथ होते हैं तो जुदाई का वो ख्याल दर्द देता है
और जुदाई के बाद उम्र भर साथ न रहने का गम साथ रहता है

फिर भी लोग इस मह को दीवानों की तरह पीते हैं
कोई भी हाल हो इश्क करते और मुस्कुराते हुए जीते हैं
मैंने भी किया था इश्क कभी. आज भी उन लम्हों को जीता हूँ
जाने क्या सोचता हूँ थोड़ी भुलाता और कुछ ज्यादा पीता हूँ

कुछ भी तो याद नहीं ऐसा जो मैं भुला पाया हूँ
वो लम्हे जो हैं कुछ बीते हुए उन्हें तब भी जिया था आज भी जी रहा हूँ
जाता हूँ आज भी जब उस पीर की दरगाह पे जहाँ दुआ माँगी थी हमने साथ होने की
देखता हूँ कि मजहब नहीं बदला बस किरदार बदल गए हैं
आज भी वहाँ कोई पुष्पेश दुआ माँगता, धागा बाँधता सा दिख पड़ता है
और कोई तुम जैसा साथ आता, चादर चडाता सा दिख पड़ता है

मजहब ही है कोई जो लोग आज भी जी रहे हैं या
दुआ है किसी पीर की मह में डुबोई हुई
जिसे कल भी उसी कशिश से पिया था और आज भी उसी मज्हब की तरह पी रहे हैं

पुष्पेश
नवम्बर 5th 2009

Thursday, July 16, 2009

Star

everybody is a star hiding so many things in them, one who let it come out looks diff and we call it as star.

Pushpesh Pandey
July 17, 2009

Monday, April 27, 2009

बस वो इंसान बदल गया है …………………..

खता क्या थी उस कैफ की
इज़हारे मुहब्बत ही तो किया था
दुनिया ने जो यूं मारे पत्थर
ऐसा क्या उसने गुनाह किया था

अजब दस्तूर है दुनिया का
लुटवा दी जिन तमाशबीनों ने अस्मतें
जाने कितनी जानें गयी जिंदगियां फ़ना हुईं
कितनो ने खोया बचपन जिनकी वजह से

आज वो ही इस वतन के सरपरस्त तलबगार बने हैं
चड बैठे हैं तानाशाह बन कर
आज हमारे मसलों में मददगार बने हैं

किससे शिकायत करे किससे दोस्ती चाहे
ये गलतियाँ भी हमारी तो नहीं
किसने बनाया खुदा फैसला करने को हमारी किस्मत का
किसने इन्हें ताजो तख्त से नवाजा

भूल गए हम वो होली का रंग वो ईद की सिवईयां
वो मुहर्रम का जुलुस
सब साथ शरीक होते थे मिल बाँट के मनाते थे
सुख हो या दुःख हर लम्हा साथ बिताते थे

फिर कुछ हिन्दू का धरम बटा
किसी मुस्लिम ने चाँद को हथिया लिया
ऊपर वाले ने तो कुछ नहीं कहा सुना
बाटने वाले ने माँ का कलेजा ही बाट लिया

बचपन में जिसे सब अम्मी कहते थे बड़े चाव से
आज वो एक मुस्लिम दुश्मन की माँ हो गयी
और जो माँ हर घर की शान थी
वो काफिर खातून के नाम से नवाजी गयी

वो जहा थे वही हैं उनका झगडा आज भी उस कुर्सी का है
भाई भाई जो साथ में खाते थे एक थाली में, बस वो इंसान बदल गया है
न तो उसका अल्लाह बदला न मेरा भगवान्, बस वो हिन्दू वो मुस्लमान बदल गया है

पुष्पेश पाण्डेय, अप्रैल 27

Saturday, March 28, 2009

ये ग़ज़ल क्या है ............

सुन रहा था ध्यान से ग़ज़ल बैठा, तो उसने पूछा
सुनते हो बड़े ध्यान से, ये ग़ज़ल क्या है
मैंने कहा,

अल्फाज़ हैं किसी शायर के लिखे
या तस्स्वुर है, ये मेरी जिंदगी का

एसी ही कुछ गज़लें मैंने अपनी यादों में सजायी हैं
सुनता हूँ तो लगता है, जैसे आइना देख रहा हूँ मैं

जिंदगी के कई पल उस शायर ने शब्दों में ढाल रखे हैं

जानता था वो क्या मेरे बारे में, कैसे इतना
या मेरी तरह वो भी गम का शौकीन था
या बना दिया था जिंदगी के हालात ने उसे
गमों का कुछ शौकीन यूँ मेरी तरह

अल्फाज नहीं हैं महज
दास्तान हैं इस जिंदगी की, उन ग़ज़लों में

वही गज़लें सजा के रखी हैं
वरना ग़ज़ल क्या है, अल्फाज़ हैं कुछ शायर के लिखे.....

पुष्पेश पाण्डेय, मार्च 29

Saturday, February 7, 2009

जिंदगी क्या है..................

जिंदगी क्या है,
मसला है एक उलझा हुआ
या फिर कुछ उलझे रिश्तों के ताने बाने का
जो सुलझता भी है फिर उलझता, और फिर सुलझता सा दिखाई पड़ता है

जाने क्या सोचता हूँ
सुलझाने बैठता हूँ इसे जितना
उतना ही उलझ जाता हूँ
आज फिर जब इसे सुलझाने बैठा, फिर उतना ही उलझ गया

याद आती है बचपन की पतंग वाली वो चरखी
जिसमे डोर अक्सर उलझ जाया करती थी
सुलझाने की लाख कोशिश करता था उसको
पर वो कोशिश हर बार एक नयी कोशिश की वजह दे जाती थी

जिंदगी कहीं वही चरखी तो नहीं
या वो एक पहिया है साइकिल का
जो चलता रहता है, घूमता रहता
जब तक उसका सफ़र पूरा नहीं होता
और गर रुक गया तो फिर नए सफ़र की तलाश में निकल पड़ता है

समझ नहीं पाया हूँ कि जिंदगी क्या है
लगता है मसला एक उलझा हुआ...........

पुष्पेश पाण्डेय, फरवरी 8