Thursday, May 13, 2021

वक़्त की शाख पे कुछ लम्हे अटक गए हैं ....................

 वक़्त की शाख पे कुछ लम्हे अटक गए हैं 


सोचता हु कभी चढ़ के उन्हें तोड़ लूँ 


फल बड़े रसीले मालूम पड़ते हैं 


पर तोड़ के तो उनमे जान नहीं रहेगी 


सो चढ़ जाता हूँ उस टहनी में 


जिस लम्हे को जीना होता है 


जी लेता हूँ उन यादगार  पलों को 


फिर जब तुम कहती हो देर हुई बहुत हुआ 


तो उतर आता हूँ मन न होते हुए शाम को घर लौटते किसी बच्चे सा 


पर कल फिर खेलने की चाह होती है कोई अफ़सोस नहीं 


ये खेल खेला है खेलते रहे हैं नतीजा कुछ भी हो 


है तो एक आस में बसी और एक विश्वास की तुम साथ हो सदा 


वरना तो ये पेड़ कबका सूख जाता बाल भी तो अब स्याह नहीं रहे 


एक वक़्त था जब तुम बूढ़ा एल जी  कह के चिढ़ाया करती थीं 


तब जितने सफ़ेद थे अब उतने काले बचे होंगे शायद 


कभी बैठना साथ तुम्हे भी यादों की किसी उस शाख पे बिठाएंगे 


नहीं नहीं घबराओ नहीं पेड़ पुराना सही पर तुम्हारा  भार सह लेगा 


वैसे भी तो तुम हम ही उसकी शाखों पे कूदा करते हैं 


चढ़  जाता हूँ जब कोई लम्हा जीना होता है 


वक़्त की शाख पे कुछ लम्हे अटक गए हैं 




पुष्पेश पांडेय 


12 मई  2021