Wednesday, August 13, 2014

वो यूँ ही बैठे बैठे किनारे पे झील के....................



वो  यूँ ही  बैठे बैठे किनारे पे झील के तक रहा था उन लहरों को
ज्यों भी होती कभी कोई हलचल उन लहरों से उस पानी में
थिरकती इठलाती कुछ मछलियाँ सी दिख पड़ती थीं
तभी यकायक उन लहरों से एक नज्म निकलती सी दिख पड़ी
कभी डूबती कभी उभरती पानी की उस उथल पुथल में
उसके लहरों को यूँ ही तकते शाम सी हो आयी थी
हवा रुक सी गयी थी और लहरों का पानी भी कुछ थम सा गया था
घूरता रहा वो फिर भी जाने क्या उस पानी में
 कोई नजम नहीं थी, अक्स था कोई किसी का पानी में मुस्कुराता सा
यूँ लगा के चेहरा तो जाना पहचाना था
फिर सोचा कि देख के पानी के अंदर से मुस्कुराता था
फिर शायद सोचा कि डाल के हाथ निकाल बहार पूछ ही लूँ
डाल हाथ जो देखा तो वहां पर कोई नहीं था
हाँ बीते कुछ लम्हों का सिलसिला आस्तीन से पानी बन के टपक रहा था
जाने कितनी यादें  टपकी जाने कितने लम्हे  गुजरे
उनमें कुछ बरसातें थी, कुछ भरी दोपहरी और कुछ लम्हे उन यादों की
वो लम्हे जिन्हे वो कभी पहाड़ की चोटी, कभी झील और कभी संघ्राहलय में ढूंढ़ता था
वक़्त के थपेड़ों से सर्द हुए उसके चहरे पे इक मुस्कान सी ला दी थी उन चंद बूंदों ने
अब भी अक्सर उसे बरसात के मौसम में नाचते, गाते, खुशिया मनाते  देखा है
मैंने अक्सर उसे उन बारिशों में उसकी आँखों मैं छुपे दर्द को कहकहों में छुपाने की  साज़िश करते देखा है
दिख जाता है आज भी अक्सर लहरों के किनारे झील में हाथ डाले
आज भी उसे आस्तीन से टपकते पानी में यादों के मोती चुनते देखा है
जाने क्या ढूंढ़ता है, जाने क्या खोजता है जैसे तुम कुछ उस झील में भुला आये थे
या शायद वो कोई पुरानी याद या फिर वो राख, जो भूलने के लिए तुम झील में सिला आये थे

पुष्पेश पाण्डेय
अगस्त 13