Sunday, December 19, 2010

सोच रहा हूँ मैं उसे नाम क्या दूँ

वो जब दरवाजे पे तुमने एक रोज दस्तक दी थी
यूँ लगा जिंदगी मिल गयी है
ख्वाबं हो गए हैं पूरे
एक नयी रौशनी सी मिल गयी है

फिर एक वो दिन भी आया, जब तुम कुछ यूँ रूठ के गए
नाराज हो हमसे यूँ मुड़े, कि पलट के देखा भी नहीं
आवाज को एक तुम्हारी तकता रहा मैं
पर तुम जो गए एक बार कि फिर न आये

फिर अरसे बाद एक आवाज जो तुमने दी
तो लगा पूस की अमावस रात में
चाँद सा एक निकल आया हो जैसे

जिंदगी थी फिर वही
थी खुशियाँ और वही सपने
हाथ थामे मेरा तुम जो साथ बैठे थे

उसी ख़ुशी के बीच में
किलकारी की एक आवाज सी आई
यूँ लगा जिंदगी मिल गयी है
ख्वाबं हो गए हैं पूरे
एक नयी रौशनी सी मिल गयी है

नाम नहीं दिया इस किलकारी को अभी, सोचा भी नहीं
धुन्दता हूँ, सोचता और फिर पेशानी (forehead ) पे लकीरें जोड़ता
कि जो रिश्ता बन गया है दिल का, उसे आवाज क्या दूँ
सोच रहा हूँ मैं उसे नाम क्या दूँ
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Pushpesh 19 Dec 2010

Saturday, September 25, 2010

जिससे कुछ अच्छा लिख सकूँ....

गंगा यमुना का जलस्तर क्यूँ बड़ा या फिर
बड़ते प्रदुषण से नाला बनी नदी को स्वयं ही रोद्र रूप धरना पड़ा

अयोध्या में राम लला जीत जायेंगे या अल्लाह जशन मनाएंगे
कुछ कुर्सी पे बैठ के बाकि विपक्ष में नारे लगायेंगे

नेता हिन्दू हो या मुस्लिम किसी को न देश से सारोकार है
वोट की राजनीति है और चल रहा नोट का कारोबार है

आधे भारत में नदियाँ उफान पे हैं, जनता त्राहि त्राहि कर रही उसका हाल बेहाल है
पर कॉमन वेल्थ के नाम पर, इन्हें तो नोट कमाने और होना मालामाल है

न तो इन्हें आपदा ही दिखती है, न सुनती है जनता की चीख पुकार
राम रहीम हो या CWG, देश और जनमानस का करते आ रहे यह व्यापार

आज जो सत्ता में नहीं कल वह बंधू सत्ता में आयेंगे
देश की खुदी हुई जड़ो को और मजबूती से हिलाएंगे

फिर दुसरे विपक्ष वाले बेरोजगारी, शिक्षा और आम जन की व्यथा के गाने सुनायेंगे
आयेंगे भाषण देंगे और जनमानस को भड़का के अपने वाहनों में शांतिपूर्वक लौट जायेंगे

इस देश का सोया जनमत फिर भी न जागेगा
चुनाव का पहिया फिर किसी हिन्दू या मुस्लिम जातिवाद की तरफ भागेगा

सोचता हूँ इन बड़ी नदियों की लहरों से हो मंथन, और इस भ्रष्टाचार को उसमे किसी प्रकार मथ सकूँ
की शायद ख़तम हो ये आजीवन वनवास और वापस लौट आयें राम जिससे कुछ अच्छा लिख सकूँ

पुष्पेश
25 Sept 2010

Saturday, June 26, 2010

किसान कि अभिलाषा

आसमान की ओर तकते उस किसान का चेहरा उदास है
कभी हरी भरी इस धरती को फिर से कुछ बूंदों की आस है

लगी हैं आसमान में आँखे कि कब ये बादल गरजेंगे
फिर लहलहायेंगी वो फसलें झूम के घटा सावन बरसेंगे

वो मां देखती हैं आसमान में कि कब वो बारिश होगी
कब उसके बच्चो की थाली में चावल और डाली होगी

रुके हुए हैं झूले सावन के पर यौवन कहा रुकता है
उस किसान बाप के चहेरे पे लड़की की उम्र का दर्द छलकता दिखता है

तांडव है ये प्रकृति का या इस मानव जाती को कोई अभिशाप है
इस अभिशाप के रावण का नाश कर जो प्रकृति को प्रसन्न करे मुझे उस राम की तलाश है

यदि इस पर भी वृक्षों को काटता वनों को उजाड़ता मानव रूपी रावण सोता रह जायेगा
डरता हूँ क्या हमारे बीच में वो राम कभी आ पायेगा
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पुष्पेश
26 June 2010

Monday, May 31, 2010

Sand and Stone

जीवन भी अजब एक पहेली है
कभी गम में रुलाती कभी खुशियों में हसाती
अजब रूप नित नया दिखाती
चंचल शोख मतवाली ये सहेली है

गम के सभी धागों को बुनता रहा मैं
फिर एक दोपहर उस गम के ताने बाने को
रेत के ढेर पे लिखने बैठा और वक़्त यूँ ही बीतता रहा

मौसम खुशगवार था हवा कुछ मंद सी बहती थी
शाम की ओस मेरे होटों पे आकर दस्तक सी कुछ देती थी

याद आया गम तो देखा
बहती हवा के साथ मायूसी की उस दास्तान को
वो रेत की चादर नील चुकी थी

अब वहां ख़ामोशी थी, था मैं
और मायूसी से भरे मेरे मन मैं था एक अहसास
की जो भी वक़्त था अच्छा बुरा वो बीत गया
यूँ ही सोचते हुए कुछ वक़्त और गुजरा

आते सूरज की कुछ किरने दस्तक दिल पे देती थी
एक नए सवेरे की राहत बची हुई मायूसी को मिटाती थी
और जीवन चक्र नयी आशा के साथ एक नयी सुबह की और
फिर उसी तरह हसता मुस्कुराता घूमता जाता था

कैद करता हूँ उन खुशगवार लम्हों को
पत्थरे संगमरमर में
जो कभी याद आता है वो सूनी रेत का ढेर
खुद को उन पथ्थरो पे बैठा पता हूँ
और दूर रेत के ढेर की बदलती सलवटों को देख मुस्कुराता हूँ

Sunday, January 31, 2010

जो कह रहा हूँ आज कविता वो मेरी नहीं

जो कह रहा हूँ आज, कविता वो मेरी नहीं, यूँ तो कभी भी नहीं होती
सिर्फ कुछ तार होते हैं यादों के उलझे से
खाली वक़्त में उन्हें ही सुलझा लेता हूँ

आज फिर एक तार ले कर बैठा, और फिर तुम सामने आ गए हो
बदला नहीं है कुछ जब सामने तुम्हे देखता हूँ
आज भी वैसे ही तो दिखते हो जैसे उन दिनों दिखा करते थे

या शायद मैं ही बूड़ा हो चला हूँ
लाख याद करता हूँ पर तुम्हारा बुडापा याद ही नहीं आता
उसी उलझी तार को पकडे बैठा हूँ, समझ नहीं आता कहाँ से शुरुआत करूँ

वक़्त कुछ रुक सा जाता है, जब कभी इन तारों को हाथ में लेता हूँ
फिर कुछ समय बाद जब वो और उलझ जाते हैं
उठा कर सम्भाल रख देता हूँ, उन्हें बंद करके अलमारी में

आज जब उसे रखने गया तो देखा, वहां तारों के कई गुच्छे पड़े हैं
एक तार में शख्स इक कोई, खड़ा मुस्कुरा रहा था
मुझे लगा ऐसे मुस्कुराते शायद ये तुम ही हो

जाने क्या सोच के तार ली हाथ में वो, और फिर सुलझाने उसे बैठ गया
इस बार वो कुछ और नहीं उलझी हाँ वो चेहरा वो कहानी कुछ पहचानी सी लगी

करीब से देखा तो ये तुम नहीं हो, ये है वो परछाई मेरे बीते दिनों की
जो हस्ती थी मुस्कुराती थी लोगों की खुशियों में उनके संग गुनगुनाती थी

अब देखता हूँ खुद को उस तार में यूँ तो पहचान नहीं पाता हूँ
क्या क्यों और कैसे इन्हीं सवालों में उलझ जाता हूँ

बड़ा खुश था ये सोच के की आज कुछ सुलझ गया
हाथ में देखा तो उस बंद अलमारी के लिए कुछ नए सवालों का इक गुच्छा उलझ गया

जीवन के बदलाव और हर आम आदमी का किस्सा है
वही कागज पे उतार रहा हूँ ये नहीं मेरा हिस्सा है

जो कह रहा हूँ आज कविता, वो मेरी नहीं

Tuesday, January 26, 2010

माँ

जन्म लेते ही पहला शब्द यही बोला था
सुख हो या दुःख उसके ही पालने में झूला था

मैं हमेशा ही कुछ न कुछ मांगता रहता
वो हस्ती और जो भी मांगता मुस्कुरा के हाथ में ला देती
कभी सोचता कि जो मांगे वो मिले ऐसी भी क्या माँ के पास जादू की छड़ी है
लाख ढूँढता पर समझ न आता की माँ की किस अलमारी क कोने मैं पड़ी है

रात हो या दिन माँ को सोते नहीं देखता
सोचता था कि हम माँ के बच्चे ही सोते हैं
माँ लोग तो सिर्फ़ प्यार करने के लिये होते हैं
कभी रात को नीद खुलती भी तो, हमेशा मुझे ठण्ड से बचाती दिखती
चादर, रजाई या कभी कम्बल उड़ाती दिखती

कभी उसे खुद के लिये कुछ मांगते या कुछ खुद के लिये करते नहीं देखता
फिर भी वो हमेशा हँसती हमेशा मुस्कुराती रहती
धूप हो या छाँव हमें अपने गले से लगाती दिखती
हमारी ख़ुशी मैं खुश हो जाती हमें चोट लगे तो वो आंसूँ बहाती दिखती

हम शायद बड़े हो गए काफी बदल गए पर वो आज भी न बदली है
जाने किस मिट्टी की बनी है वो, जहां के लोग सारे लगते उसे अपने ही बच्चे हैं
चाहे कितनी बुराई हो हममे पर हम आज भी लगते उसे अच्छे हैं
हिन्दू रोये या मुस्लिम उसकी आँख आज भी छलक आती है
कोई भी बच्चा हँसता है वो उसके साथ आज भी मुस्कुराती है

जादू की छड़ी तो नहीं, पर शायद जिस मिट्टी से वो बनी उसमें ही एक करिश्माई है
आज भी चोट लगने पर जो पहला शब्द निकलता है, उस माँ शब्द में ही सारी सृष्टि समाई है

पुष्पेश, 26 जनवरी 2010