Sunday, July 24, 2016

कुछ अजीब ही है ये साज् वक़्त का ..



कुछ अजीब ही है ये साज् वक़्त का
रुकता नहीं थकता नहीं, जब देखो बेवक़्त बजा करता है
कहीं इसमें सुरों का श्रृंगार है
कहीं विरह की टीस, तो कहीं खिलती किलकारियों की आवाज है
कुछ अजीब ही है ये साज् वक़्त का......
कभी यूँही सुनने बैठो तो दिल को छूने वाली आवाजें सुनाई दे जाती हैं
कभी कोई सोच हंसा  देती है तो कहीं कोई याद रुला देती है
हर नज़्म इसकी बीते पलों की आँख नम करा देती है
आज फिर देखो एक नज़म पुरानी सुनने  फिर से बैठ गया
प्यार भी है, गुस्सा भी, थोड़ी  हंसी तो कुछ आंसू भी
कुछ अजीब ही है ये साज् वक़्त का
रुकता नहीं थकता नहीं, जब देखो बेवक़्त बजा करता है

पुष्पेश पाण्डेय
24 जुलाई 2016 

Saturday, March 5, 2016

JNU के रण से...........................

आज के दौर के कन्हैया आजादी का बिगुल बजाते हैं
JNU के रण से ये अपना परचम लहराते हैं
मनुवाद को धताने वाले खुद जातिवाद फैलाते हैं
दलित का रोना ले ये मनुवाद बढ़ाते हैं
उसी मनुव्यवस्था के चलते जब आरक्षण मिले
तो ये कुछ सर्प विषैली जिह्वा लपलपाते  हैं
अपना तर्क साधने को ये आतंकियों को गुरु बनाते हैं
ये वो गरीब नहीं जो फैक्ट्री में या घर से दूर मेहनत कर अपना वक़्त बिताते हैं
न ही वो निर्धन जो एक वक़्त भूके रह अपनी माँ को खाना पहुँचाते हैं
ये देश की वो आवाज हैं जो सिर्फ मोदी को गरियाते हैं
चाहे वो किसी दलित की लाश हो या दलित कवच
ये अपना और अपने राजनीतिक गुरुओं का तर्क सधाते हैं
इन्होंने सेना को भी नहीं बक्शा उनके लिए ये फरमाते हैं
नहीं मिला होगा JNU में  एडमिशन इसीलिए वह जवान सर कटाते हैं
सर्प ही विषैले नहीं हमारे वहां कई मदारी भी पाये जाते हैं
जहां ऐसे सर्प भिनभिनायें वो बीन लिए दौड़े आते हैं
आखिर आने वाले इलेक्शन के गलियारे में युद्ध भी तो लड़ना है
आगे कोइ हथियार रख एक मसीहा भी तो बनना है
इतने वर्ष तुमने JNU को भोगा, नेता बने, बोलो क्या उपसंहार किया
देश के दलित छोड़ो अपनी छात्रवृत्ति से कितना खुद के परिवार का ही उद्धार किया
आज सुहानुभूति के लिए जिस ३००० रुपये पे काम करने वाली माँ और बीमार पिता का उद्घोषण देते हो
वर्ष मैं कितनी बार उस जीवनदायनी माँ के साक्षात दर्शन कर लेते हो
राजनीति की रोटी सेकने आये हो नेता बनोगे निकल जाओगे
28 तो निकाल  चुके और कितने वर्ष  लोगे, कि दलित उत्थान के लिए कुछ तो कर जाओगे
JNU जैसी यूनिवर्सिटी जिसमें कई मित्र पढ़े और कई उच्च पदों पे हैं डटे
परन्तु उसकी देखो निहरता आज इतने वर्षों में यह भी न कर सकी
छलावे तो कई देश को दिए परन्तु अम्बेडकर,  फुले का रिक्त स्थान न भर सकी। .......

पुष्पेश पाण्डेय
5 मार्च 2016








Sunday, February 7, 2016

काफी समय से लम्हा चुराकर कुछ लिख न पाया……..

लगता है कल की ही बात थी , देखा तो एक बरस  होने को आया
जीवन की आपा धापी मैं कुछ यूँ उलझा
काफी समय से लम्हा चुराकर कुछ लिख न पाया
सोचता हूँ लिखू भी तो क्या लिखूँ
वही मैं हूँ वही तुम हो, हाँ वक़्त कुछ बदल सा गया है
तकाजा गर करूँ वक़्त का तो यूँ तो बरसों हुए
बालों  की रंगत जो थोड़ी स्याह थी अब कुछ कुछ बदलने  लगी है
शायद मेरे कुछ ज्यादा  और  तुम्हारे थोड़े कम
वो अलग बात है  कि ख्वाबों में या अक्सर सामने जब कभी  तुम आते हो
 वैसे ही मिलते हो जैसे बरसों पहले तब मिले थे,
 वो जो एक रंग जो छाया था पहली मुलाकात में
आज भी वही गुलाबी रंग तुम्हरो गालों पे साफ़  दिखता है
वो शर्म हया का बुरका जो पहना था तब तुमने
जब पकड़ा था हाथ कभी, आज भी शकल पे तुम्हारी वो पोशीदा  है
कहाँ कुछ बदला वैसे ही तो दिखते हो
आज भी जब कभी झील किनारे मुस्कुराते मिलते हो
रूहें वही हैं कुछ भी न बदला, हाँ ये तो वक़्त का मिजाज है
अलबत्ता वही बदलता रहता है, पहिया है वक़्त का अनवरत घूमता रहता है
कितना भी चक्कर घूमे पर क्या बदल पायेगा उन  लम्हों को कभी
जिन्हे चुरा लिया था हमने उस वक़्त से उस मौके पर तब,
वो तो न बदले हैं न बदल पाएंगे चाह कर भी
सोचता हूँ उम्र के उस पड़ाव को जब होगा पोपला मुह
कमर टेढ़ी और ये सफ़ेद बाल भी साथ छोड़ जायेंगे
हम जैसे दीवाने क्या मुस्कुराते इस जग यूँ ही पाये जायेंगे
काफी वक़्त हुआ या  कहूँ कि बरस होने को आया
काफी समय से लम्हा चुराकर कुछ लिख न पाया……..

पुष्पेश पाण्डेय
8 फ़रवरी 2016