Thursday, August 16, 2018

याद तुम बहुत आओगे अटल। (a homage to one one of my favorite leaders)


याद तुम बहुत आओगे अटल
नाम जैसे ही अटल थे तुम्हारे विचार और इरादे
राजनीति पश्चात, राष्ट्र सर्वोपरि का पाठ तुम सदा पढ़ाते
तुम्हारी ही छत्रछाया में  कितने कवि पढ़  गए
कितने राजनेता, राजनीति की सीढ़ी चढ़ गए
वृक्ष से अटल तुम अपनी छाँव में सबका पालन करते रहे
विपक्ष हो या सर्वोच्च पद बिन लालसा राष्ट्रसेवा करते रहे
यूएन में जा हिंदी में  जो गूंजा वो सिंहनाद भी तुम्ही थे
कौशल वक्ता हो या मौत से टक्कर लेता कवि भी तुम्ही थे
नेता राज नेता तो और भी आयेंगे फिर पद पे कोई शिरोधार्य होगा
एक आशा कि तुम फिर लौटोगे, तुम्हारी ही बाट जोहेंगे, अटल तुम्हारा सदा इंतज़ार होगा


याद तुम बहुत आओगे अटल


पुष्पेश पाण्डेय
16 अगस्त 2018 

Tuesday, August 14, 2018

एक बेटी की आजादी......


अखबार की हैडलाइन पढ़ते  ही जोर की चित्कार आयी
कहीं युवती, कहीं वृद्धा या कहीं साल और छह माह की बच्ची थी ये आवाज आयी
कुंठित समाज का पहिया विध्वन्स की तरफ जा रहा है
कौन बचाएगा इस मानव रूपी सर्प से, हर पिता को यही दंश सत्ता रहा है
स्वतंत्रता अपनी बहत्तरवीं  वर्षगाँठ की ओर अग्रसर हो रही है
त्रसित नारी, घुट घुट कर आज भी आजादी की बाट जोह रही है
कुछ ख़बरें राजनेताओं और अख़बारों के लिए मसाला हैं तो चर्चाए आम हैं
कहीं बलात्कार, कहीं हलाला और कितनी ही विसंगतियों से जाने कितनी बहनें आज भी कुर्बान हैं
जन्म से बधिर अभिषप्त समाज को इनकी चीत्कार सुनायी नहीं देती
व्यसन मैं लिप्त कितने भाई पिता भुला बैठे हैं बहन, रिश्ते, माँ और अपनी ही बेटी
जिस समाज के ठेकेदारों द्वारा बेटी का चरित्र उसके कपड़ो की लम्बाई से मापा जाता हो
काश उस अस्सी वर्ष की माँ और तीन माह की बेटी की भी कोई नेता टीका टिपण्णी कर पाता हो
इस कुंठित बधिर नपुंसक समाज को आजादी का शोर सुनाने किसी दिन कोई भगत सिंह, राजगुरु भी आएगा
उस दिन के इंतज़ार मैं हैं देश की बेटियां जब उन्हें स्वतंत्रता का हक़ मिल पायेगा

पुष्पेश पान्डेय

14 अगस्त 2018

Saturday, February 3, 2018

मुझसे पूछा न करो याद करते हैं गर तुमको हम


मुझसे पूछा करो याद करते हैं गर तुमको हम
याद आने के लिए भुलाना भी तो मुमकिन  नहीं मुनासिब भी नहीं
भूले ही कब थे जो याद करें तुमको हम 
गर कोई लम्हा जीना हो तो जी लेते हैं उन बीते लम्हो को ख्यालों  में
अपनी ही दुनिया के मीर हैं, उस बस्ती में आज भी हमारा हुक्म चलता है
वक़्त की धूल को रोक कर रखा है उस जहाँ में जाने से हमने
सो जो बीता ही नहीं वो क्या कर भूलेंगे और क्या याद करेंगे
मीर ने अपनी ही दुनिया सजा रख्खी है कभी आओ तो सैर पे ले जायेंगे
वक़्त की लगाम को थाम इस शहंशाही का लुत्फ़ तुमको भी दिलवाएंगे
तुम जो आये थे कभी जाने की कसम लेकर
कर देखो आज तलक उस कसम को हमने निभा रखा है
वो लम्हा जो वक़्त के बटुए से चुराया था कभी
दरगाह की चादर सा पाक उसी रौशनी से सजा रखा है
मुझसे पूछा करो याद करते हैं गर तुमको हम..................


पुष्पेश पांडेय 
4 फरवरी 2018