कहते हैं समन्दर अपने भीतर कुछ नहीं रखता
लाख छुपाओ लहरों के साथ किनारे पे ला पटकता है
ये यादें भी समन्दर की उन लहरों की तरह हैं
जितना दूर जाती हैं फिर पलट कर उससे ज्यादा पास आती हैं
किनारे पे खड़े पाँव से टकरा अपने वज़ूद का एह्सास दिलाती हैं
जैसे कह रही हों, मैं तो यहीं हूँ, मैं गयी ही कहा थी
यहीं तो हूँ इस किनारे की गीली मिटटी में, तुम्हारे पाँव मैं लिपटी टेकरी की उस रेत के पास
पहाड़ी से टकराती इन लहरों के शोर में, लहरों से उड़ती इन पानी की बूदों में
देखो साँझ का वक़्त भी तो मेरी तरह ठहरा हुआ है, जब शाम और रात आपस मैं मिलते हैं
इस वक़्त मैं अक्सर किनारे पर आती हूँ, मुझसे यूँ दूर न जाया करो
उससे चंद दो घडी बतियाने बैठा, देखा तो सांझ की रात हो आयी थी
आसमाँ में निकला वो पूनम का चाँद, समन्दर मैं जा बैठा जैसे मुँह चिढ़ा रहा था
और समन्दर का वो नमकीन पानी आँखों से ओस बन कर गालों को भिगो रहा था
चेहरे पे एक हँसी थी और एक ख्वाब था शायद, ख्वाब ही होगा वरना
कहते हैं समन्दर अपने भीतर कुछ नहीं रखता
लाख छुपाओ लहरों के साथ किनारे पे ला पटकता है ...
पुष्पेश पान्डेय
16 जून 2017
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