जिन्दगी की इस भागमभाग भरी आपाधापी में
सोचता हूँ जब उन बीते लम्हों को एकाकी में
देखता हूँ जो रोज एक नया बनने की चाह
या चुनता हूँ वो एक नया रास्ता चुनने की राह
इन अनगिनत चाहतों में खुद को भुला बैठा हूँ
चाहतों की इस चाहत मैं जो था वो गवां बैठा हूँ
वो सुकून जो पास था उन छोटे से कमरों में
नहीं पास जो इन बड़ी बिल्डिंगों मीनारों में
सुकून जो मिलता था वो हीरो हौंडा चलाने में
आज खोया खोया सा है इन सिडान को दौड़ाने में
उस छोटी गली के ऊपरी मंजिल के उन छोटे कमरों में
यादें जो साझा करि हैं कई उन भीड़ भरे गलियारों में
उन भीड़ भरी गलियों में छुपते छुपाते निकल जाने का सुकून
उन ऊपरी कमरों में खुद को पा जाने का सुकून
छोड़ आये जिसे जिंदगी की दौड़ में उस मकान में
खो सा गया जो शहर की बड़ी बड़ी मीनारों में
ढूंढते हैं जिसे अक्सर तकते हम सितारों में
पसरा है आज तक उस मकान की मुंडेरों में
कैंटीन की चाय में और पावरहाउस की उन दलेरों में
उन छोटी छोटी सीढ़ियों में या उन पहाड़ियों में
पीर की दरगाह में या झील की अंगड़ाइयों में
सोचा है इस बरस उस मकान की एक ईंट उधार लाऊंगा
खो गया जा पसरा है जो, वो सुकून साथ लाऊंगा
वो मकान जिसमे आज भी वो सुकून पसरा पड़ा है
पुष्पेश पाण्डेय
जनवरी 6, 2017
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