बैठ तनहा स्टेशन की टूटी बेंच पर अक्सर
वो आती जाती ट्रेनें ताका करता
रोज वही ट्रेनें आती, वापस जाते देख जिन्हें मुस्काता
सोचता बड़बड़ाता, हँसता और फिर मायूस हो लौट जाता
सर्दी की सर्द रातों में अक्सर जो नींद का दामन छूटा पाता
या दूर किसी याद की रजाई से एक पाँव ठण्ड में बाहर निकल जाता
बैचैन हो उठता कंपकपाता और जा बैठता फिर वही यादों की रजाई ओढे
किसी मजार पे लगे पुराने दरखत से बनी उसी पुरानी बेंच पर
कोई ट्रेन पुरानी छूट गयी हो जैसे, शायद जिसे पकड़ना चाहता है
अब भी ढूंढा करता है, रोज़ आकर, इंतज़ार में सब्र टटोला करता है
जो कुछ ट्रेनें वापस को जातीं उनमे अक्सर वो झट चढ़ जाता
एक दो कुछ स्टेशन सही कुछ लम्हें वक़्त रोक वो यूँ ही बिताता
बैठ तनहा स्टेशन की टूटी बेंच पर अक्सर.......
पुष्पेश पांडेय
25 सितम्बर 2017