Tuesday, October 31, 2017

खाली हाथ कहाँ रोते हुए आये थे ज़माने में .........


खाली हाथ कहाँ रोते हुए आये थे ज़माने में
दोनों हथेलियों में मुठ्ठी बंद उम्र बटोरी थी खुदा से
दौलते ख्वाइश जमा करते हमें देख खुदा यूँ ही मुस्कराता रहा
और वो बेवफा कम्बख्त उम्र हाथ से यूँ ही फिसलती रही


पुष्पेश पान्डेय
31 अक्टूबर 2017

Sunday, September 24, 2017

बैठ तनहा स्टेशन की टूटी बेंच पर अक्सर .....

बैठ तनहा स्टेशन की टूटी बेंच पर अक्सर
वो आती जाती ट्रेनें ताका करता
रोज वही ट्रेनें आती, वापस जाते देख जिन्हें मुस्काता
सोचता बड़बड़ाता, हँसता और फिर मायूस हो लौट जाता
सर्दी की सर्द रातों में अक्सर जो नींद का दामन छूटा पाता
या दूर किसी याद की रजाई से एक पाँव ठण्ड में  बाहर निकल जाता
बैचैन हो उठता कंपकपाता और जा बैठता फिर वही यादों की रजाई ओढे
किसी मजार पे लगे पुराने दरखत से बनी उसी पुरानी बेंच पर
कोई ट्रेन पुरानी छूट गयी हो जैसे, शायद जिसे  पकड़ना चाहता है
अब भी ढूंढा करता है, रोज़  आकर,  इंतज़ार  में सब्र टटोला करता है
जो कुछ ट्रेनें वापस को जातीं उनमे अक्सर वो झट चढ़ जाता
एक दो कुछ स्टेशन सही कुछ लम्हें  वक़्त रोक वो यूँ ही बिताता
बैठ तनहा स्टेशन की टूटी बेंच पर  अक्सर.......


पुष्पेश  पांडेय
25 सितम्बर 2017

Thursday, June 15, 2017

कहते हैं समन्दर अपने भीतर कुछ नहीं रखता ....


कहते हैं समन्दर अपने भीतर कुछ नहीं रखता 
लाख छुपाओ लहरों के साथ किनारे पे ला पटकता है 
ये यादें भी समन्दर की उन लहरों की तरह हैं 
जितना दूर जाती हैं फिर पलट कर उससे ज्यादा पास आती हैं 
किनारे पे खड़े पाँव से टकरा अपने वज़ूद का एह्सास दिलाती हैं 
जैसे कह रही हों, मैं तो यहीं हूँ, मैं गयी ही कहा थी 
यहीं तो हूँ इस किनारे की गीली मिटटी में, तुम्हारे पाँव मैं लिपटी टेकरी की उस रेत के पास 
पहाड़ी से टकराती इन लहरों के शोर में, लहरों से उड़ती इन पानी की बूदों में
देखो साँझ का वक़्त भी तो मेरी तरह ठहरा हुआ है, जब शाम और रात आपस मैं मिलते हैं 
इस वक़्त मैं अक्सर किनारे पर आती हूँ, मुझसे यूँ दूर न जाया करो 
उससे चंद दो घडी बतियाने बैठा, देखा तो सांझ की रात हो आयी थी 
आसमाँ में निकला वो पूनम का चाँद, समन्दर मैं जा बैठा जैसे मुँह चिढ़ा रहा था 
और समन्दर का वो नमकीन पानी आँखों से ओस बन कर गालों को भिगो रहा था 
चेहरे पे एक हँसी थी और एक ख्वाब था शायद, ख्वाब ही होगा वरना 
कहते हैं समन्दर अपने भीतर कुछ नहीं रखता 
लाख छुपाओ लहरों के साथ किनारे पे ला पटकता है ...

पुष्पेश पान्डेय 
16 जून 2017 

Saturday, January 21, 2017

यूँ तो तेरी जुदाई का गम भी कुछ कम नहीं ....................


यूँ  तो तेरी जुदाई का गम भी कुछ कम नहीं 
टपकती है आँखों से दुआ बन के जो 
वो मेरी याद में दुपट्टा तेरा तो नम नहीं 
यादें जो लिपटी हैं चारों ओर माशूक बन कर 
तेरे होने का अहसास कराती तो कुछ कम नहीं 
ढूंढा करते हैं जिस एहसास को बीते वक़्त के सायों में 
तन्हाई में महसूस अक्सर होता वो एहसास तो कुछ कम नहीं 
मिलते हैं आज भी उसी दीवानगी से टीले पे जो 
तुम हम जैसे ही कोई होंगे क्या हुआ जो तुम हम नहीं 
वो सर्द हवा जो आज भी भिगो देती है पलकों का तकिया  
उन यादों के बिछोने में सोया जागा होगा तू 
वरना यूँ नींद में उठ बैठ जाते तो हम नहीं 
यूँ  तो तेरी जुदाई.............................

पुष्पेश पान्डेय
21 जनवरी 2017 

Friday, January 6, 2017

उस मकान में सुकून पसरा पड़ा है ..........................



जिन्दगी की इस भागमभाग भरी आपाधापी में
सोचता हूँ जब उन बीते लम्हों को एकाकी में
देखता हूँ जो रोज एक नया बनने की चाह
या चुनता हूँ वो एक नया रास्ता चुनने की राह
इन अनगिनत चाहतों में खुद को भुला बैठा हूँ
चाहतों की इस चाहत मैं जो था वो गवां बैठा हूँ

वो सुकून जो पास था उन छोटे से कमरों में
नहीं पास जो इन बड़ी बिल्डिंगों मीनारों में
सुकून जो मिलता था वो हीरो हौंडा चलाने में
आज खोया खोया सा है इन सिडान को दौड़ाने में
उस छोटी गली के ऊपरी मंजिल के उन छोटे कमरों में
यादें जो साझा करि हैं कई उन भीड़ भरे गलियारों में

उन भीड़ भरी गलियों में छुपते छुपाते निकल जाने का सुकून
उन ऊपरी कमरों में खुद को पा जाने का सुकून
छोड़ आये जिसे जिंदगी की दौड़ में उस मकान में
खो सा गया जो शहर की बड़ी बड़ी मीनारों में
ढूंढते हैं जिसे अक्सर तकते हम सितारों में

पसरा है आज तक उस मकान की मुंडेरों में
कैंटीन की चाय में और पावरहाउस की उन दलेरों में
उन छोटी छोटी सीढ़ियों में या उन पहाड़ियों में
पीर की दरगाह में या झील की अंगड़ाइयों में

सोचा है इस बरस उस मकान की एक ईंट उधार लाऊंगा
खो गया जा पसरा है जो, वो सुकून साथ लाऊंगा
वो मकान  जिसमे आज भी वो सुकून पसरा पड़ा है

पुष्पेश पाण्डेय
जनवरी 6, 2017