Friday, December 20, 2013

फिर आखिर उसकी ख़ुशी का राज क्या था .............



वो फटे से स्वेटर के उनों में उलझा
मैला कुचेला सा गंदे कपड़ो में सिमटा
बैठा हुआ उस मेट्रो स्टेशन के नीचे
आने जाने वालों को देख तकता
एक जलती लकड़ी के पास बैठा मुस्कुराता
ठण्ड को जैसे ठेंगा दिखाता
फिर ज्यों ज्यों रात का सन्नाटा गहराता
उस जलती लकड़ी कि राख के साथ आग कि तपिश भी कम होती
इधर उधर से कागज के पुर्जो को चुनता
कही मिल जाता टूटी टहनी का टुकड़ा
जो कहीं उसकी फूंकों से वो जल जाता
वो इठलाता मुस्कुराता विजय गीत गाता
यूँ ही जलने भुझने कि पशोपेश में अपनी रातें बिताता
फिर सुबह किसी कार वाले से एक दो रूपये का सिक्का ले कर
एक चाय कि चुस्की से सुबह के घने कोहरे को मुह चिढ़ाता
को दर्द नहीं था उसकी आँखों में, न किस्मत से कोई शिकवा या गिला
कभी भी किसी मोड़ पे वो या उसके जैसा कोई दिख जाता
और यूँ ही फिर सोचने को मजबूर करता
कि किस बात का घमंड था उसको
क्या था जो इस ठिठुरती ठण्ड रात में भी
एक जीत थी उसकी आँखों में
कि आंखिर उसकी ख़ुशी का राज क्या था
और क्यों जिनके पास सब कुछ था वो खुश नहीं थे
फिर आखिर उसकी ख़ुशी का राज क्या था

पुष्पेश पाण्डेय
दिसंबर 21, 2013

Friday, November 15, 2013

तुमने सोचा कि तुम्हारी जीत ने मेरी चीख को दबा दिया


जनम लिया तो लोगो की  आँखों से दिल में उतारी  गयी
कहीं गुड़िया कहीं लक्ष्मी और कहीं बिटिया कह के पुकारी गयी
कुछ घर वो भी थे जिन्होंने मुझे मनहूस का नाम दिया
या मेरी माँ को वंश दे सकने का ताना सुना दिया

मैं तो घर की बेटी थी जहाँ जनम लिया या ब्याही गयी उसी घर को अपना लिया
मानव जीवन की प्रतिस्पर्धा  और बड़ी तो मैंने भी हमसफ़र को अपना हाथ सहारे के लिए बड़ा दिया
घर कि चौखट से बाहर  कदम रखा और गर्व से सर ऊँचा कर विदेशों मैं भी नारी शक्ति का परचम लहरा दिया

पर ये व्यवस्था उन पुरुष प्रधान पंचों  से सही गयी
और समाज के शिष्टाचार  बंधन तोड़ने के लिए मैं ही दोषी कही गयी
यदि रात बेटा घर आये तो माँ का सीना चौड़ा हो जाता है
सबसे कहती बीटा जी तोड़ मेहनत  कर कमाई घर लाता है
परन्तु यदि यही मेहनत लड़की करे तो ये कहाँ समाज को भाता है
आज भी स्त्री का चरित्र उसके कपड़ो की लम्बाई से आंका जाता है

इस पर भी मैं रुकी तो पौरुष अभिमान में मद तथाकथित पुरुषों ने मेरा चीर ही हरा दिया
उन नपुंसक पुरुषों ने सोचा कि बाहुबल कि जीत ने मेरी चीख को दबा दिया
पर मैं वापस आउंगी दोगुनी ताकत से
मिटाऊंगी तुम्हारा दुराभिमानी अस्तित्व इस संसार रुपी वृक्ष कि शाखों से

मैं प्रकृति हूँ, मैं ही सृजन तो संहार भी मैं ही हूँ
इस संपूर्ण सृष्टीधारा का आधार भी मैं ही हूँ
जान लो कि हर घर में मैं ही माँ, मैं ही पुत्री, पुत्रवधू, शिष्टाचार, व्यवहार मैं ही हूँ
मत समझो मुझे बेबस यह चीख यदि बदले तो चंडी का अवतार मैं ही हूँ
असुर वध की थी जो गर्जना उस चंडी के अट्टाहास  मैं छुपा हाहाकार मैं ही हूँ

यदि फिर भी सोचते रहे कि तुम्हरी जीत ने मेरी चीख को दबा दिया
ये हो कि सृजन नहीं संहार का लेना पड़े रूप और फिर किसी चंडी कालका ने दुराभिमानी अस्तित्व को ही संसार से मिटा दिया

पुष्पेश पाण्डेय 
नवंबर 16, 2013

Thursday, August 1, 2013

उन चंद बूँदों ने एक याद सी दिला दी


आज फिर बारिश के मौसम में जो हवा चली, उन चलती हवाओं और पेशानी  पे जा गिरी चंद बूँदों ने एक याद सी दिला दी
वो चंद बूँदें बारिश की जो पेशानी से होते हुए यूँ कंधों पे जा गिरी

जैसे तुम गले लग के हो रोये और आँसू का इक कतरा तुम्हारे गालों से धुलक्ता कांधों पे जा गिरा हो कोइ
चलती हवाओं का वो तेज बेबाक रुख जैसे आ के तेजी से बाहों में समा रहा हो कोई

यूँ ही खड़ा रहा भीगता,  आज घंटों  तन्हा वहीं उन  खयालो के गदर में
गिरता सम्भलता यूँ ही हाथ मलता, सोचता झुंझ्लाता पानी में कुछ पुरानी तस्वीरें सी बनाता
कभी उस बारिश में खड़ा  ठहठहाता, यूँ ही हँसता और कभी उन बूँदों में भीगी पलकें छुपाता

फिर एक जोर की हवा चली वो चँद बूँदें उड़ा के ले गयी, सूरज निकला किरणें फूटी और नया एक जीवन सा खिल गया
पर वो बरसता बादल का टुकड़ा आसमान में जैसे एक खाली कोई पैबन्द सा सी गया
मैं देखता रहा आसमान को तकते यूँ ही फिर शाम गुजरी और चाँद निकल आया

मैंने बादलों के उस टुकड़े को अलविदा कहाओर नजरें झुका कंकड़ों में ठोकरें मारता घरको लौट आया
बरसात का मौसम था, फिर बादल आए, फिर बरसात हुई और में तकता रहा यूँ ही पर वो बादल का टुकड़ा ना आया
फिर सोचा कि हाँ जिंदगी भी तो है यूँ ही, साथ जो छोड़ गया राह् में कोई वो फिर कहां लौट के आया

तुम भी तो ना आए थे , जो गए थे अलविदा कह कर साथ चलते हुए, यूँ फिर मिलने, साथ चलने का वादा देकर
मैं खड़ा रहा वही उस मोड़ पर, जाने कितनी बरसाते आयीं, जाने कितने बादल आए
काले घने मतवाले से, जो लरज-गरजके बरसे, चीखे, गर्जे ओर चोंधीयाये

सिर उठा के जो देखा ऊपर तो उस मुस्कुराते बादल ने चंद बूँदें बारिश की मेरी पेशानी  पे गिरा दीं  
आज फिर बारिश के मौसम में जो हवा चली, उन चलती हवाओं और पेशानि पे जा गिरी चंद बूँदों ने एक याद सी दिला दी

(पेशानी  = Forehead)


पुष्पेश पाण्डेय 
Aug 01, 2013

Sunday, March 24, 2013

यूँ ही टकरा गया आज उसी शायर से ........



फिर बैठे बैठे इत्तेफाक से यूँ ही टकरा गया आज उसी शायर से
जो किसी महखाने में शाम ढले मिल जाता हँसता मुस्कुराता, यूँ ही बैठा यारों में जाम टकराता

जाने क्यों गुम था वो भीड़ में  यूँ ही तनहा सा खड़ा एक जाम लिए
अक्सर कभी कुछ यूँ ही पगला दीवाना सा मालूम देता
मुस्कुराता और कभी ठहठहा कर हँसता फिर नम आंखों से चंद अश्क बहा करते

ठहठहा लगा के फिर कभी कोई बात दीवानी करता
या फिर किस्सा कोई पुराना छेड़  देता अपनी यादों के ताने बानों से
या जी जाता फिर कोई लम्हा यूँ ही सोच में डूबा पुरानी यादों के झरोखों से

साकी के दिए हर नए जाम के साथ ज्यों ज्यों नशा बड़ता जाता
बुनता जाता एक नया तानाबाना यादों का मिलकर ख्यालों से
जिया करतावो हर एक लम्हा भी जो हुआ ही नहीं, अपने ख्यालों की चित्रकारी से

फिर जब चड़ते आफ़ताब के संग नशा ये जिंदगी का सर से उतरता
रह जाता खामोश वीरान खड़ा भीड़  मैं यूँ ही तनहा
सवालों के जवाब ढूँढता, ख्वाबों और हकीकत से उलझता लड़ता बीती रात की खुमारी से

गुजार देता दिन  अपना इसी कशमकश में,ख्वाब, बीती याद और हकीकत ऐ जिंदगी की मशक्कत में
और फिर वो किसी महखाने में शाम ढले मिल जाता हँसता मुस्कुराता,   यूँ ही बैठा यारों में जाम टकराता


पुष्पेश पाण्डेय
March 25 2013