वो फटे से स्वेटर के उनों में उलझा
मैला कुचेला सा गंदे कपड़ो में सिमटा
बैठा हुआ उस मेट्रो स्टेशन के नीचे
आने जाने वालों को देख तकता
एक जलती लकड़ी के पास बैठा मुस्कुराता
ठण्ड को जैसे ठेंगा दिखाता
फिर ज्यों ज्यों रात का सन्नाटा गहराता
उस जलती लकड़ी कि राख के साथ आग कि तपिश भी कम होती
इधर उधर से कागज के पुर्जो को चुनता
कही मिल जाता टूटी टहनी का टुकड़ा
जो कहीं उसकी फूंकों से वो जल जाता
वो इठलाता मुस्कुराता विजय गीत गाता
यूँ ही जलने भुझने कि पशोपेश में अपनी रातें बिताता
फिर सुबह किसी कार वाले से एक दो रूपये का सिक्का ले कर
एक चाय कि चुस्की से सुबह के घने कोहरे को मुह चिढ़ाता
को दर्द नहीं था उसकी आँखों में, न किस्मत से कोई शिकवा या गिला
कभी भी किसी मोड़ पे वो या उसके जैसा कोई दिख जाता
और यूँ ही फिर सोचने को मजबूर करता
कि किस बात का घमंड था उसको
क्या था जो इस ठिठुरती ठण्ड रात में भी
एक जीत थी उसकी आँखों में
कि आंखिर उसकी ख़ुशी का राज क्या था
और क्यों जिनके पास सब कुछ था वो खुश नहीं थे
फिर आखिर उसकी ख़ुशी का राज क्या था
पुष्पेश पाण्डेय
दिसंबर 21, 2013
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