Saturday, August 6, 2011

काँच के प्यालों में अक्सर कुछ कुरेदा करता है

काँच के प्यालों में अक्सर कुछ कुरेदा करता है
लिखता था कभी, ऐसा लोग कहते अब तो गम ग़लत करता है
मैने देखा नहीं, मुझे मिला नही वो कभी
पाता था अक्सर उसे साथ बैठे, वहीं महखाने मैं
ह्म्प्याला बनता हसता मुस्कुराता, अक्सर खुशी से मुह चिड़ाता
यूँ दिखता नहीं मिलता भी नही, पर अक्सर जब प्याला भर जाता
कही छलक ना जाए, जाम गिर ना पड़े ये सोच ज्यों ही उसे होठों से लगता
जाम के अंदर जाते ही, वो फिर सामने आ जाता वैसा ही हसता मुस्कुराता
हम घनटों बैठे बतियाते, बीते 7 मिनटों में 7 जन्मों के किससे सुनाते
मैं सुनता नही, बातों बातों मैं अक्सर उसके हाथो पे नज़र गडाता
कही कुछ लिख ना दे, ना मैं भूल जाउ कहीं,, जहन में बस यही एक ख़याल आता
मैं भी बैठता रहता एकटक निगाह डाले उसे, हम रहते साथ मैं जब तक वो घर ना जाता
या फिर जब तक साकी ना सहारा दे मुझे उठाता या फिर वो कोचवांन घर छोड़ जाता
अगली शाम जब बाज़ार जाता तो फिर वही आवाज़ आती
कल जनाब तशरीफ़ लाए थे ओर कुछ नशीले नज़म सुनाए थे
खोजता रहता होश में, पर वो कम्बख़्त तो दो प्यालो के बाद ही आता
आज खाली प्याला ले के बैठा सूखा सा दीवाना बन, पर वो ना आया
कही प्याले मैं तो नही जा बैठा मेरा दोस्त, ये सोच प्याले मैं हाथ घुमाया
आवाज़ आई एक टूटने की जानी पहचानी सी, लगा यूँ की खुद से हाथ मिलाया है
जा पहुँचा हकीम के दर तो सुना की कोई नया मजमून आया है
आज गोया जनाब थे होश मैं तो खून से ही कुछ लिख फरमाया है
वरना लिखता तो नही काँच के प्यालों में अक्सर कुछ कुरेदा करता है

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पुष्पेश पांडेय Aug 6th 2011

3 comments:

Ashish Modi said...

nice

Vanita Pant said...

hey PP, this is a revelation!!!! beautiful poetry in true Lucknawi style :) proud of u!!!!!

Pushpesh said...

@modi thnx
thnx D even i luv ur blog