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सुबह सुबह बारिश की दस्तक से किवाड़ खोला
देखा कुछ बूदें ताजगी भरी बिजली के तारों पे सिमटी थी
फिर कहीं से एक बूँद आती उनमे जुडती
एक छोर से दूसरे छोर तक स्वतंत्र विचरती
और फिर एक टप की आवाज कर नीचे गिर जाती
जीवन की इस उठा पटक का जीवंत वर्णन कर जाती
खड़ा रहा कुछ देर यूँ ही उस बारिश में
जाने क्या ढुन्द्ता सूंघता गुनगुनाता खोजता
पर वो मिटटी की खुशबु नहीं मिल पाई
हाँ कुछ बड़ी इमारतों से गुजरते बादलों की घटा
कुछ गरजते बरसते बादलों की आवाज
और उन बड़ी बड़ी इमारतों के बीच से गुजरती उन हवाओं का शोर
सभी कुछ था बस एक वो मन जो भाग रहा था देश की ओर
वो मिटटी के घर वो बारिश वो खेत वो घटायें
उसमें नहाते वो छोटे बच्चे सारी दुनिया से दूर अपने ही जग को हाथ में समेटे
वो जो उनकी नाव नहीं जीत पाती थी या बारिश की कोई बड़ी बूँद उसे डूबा जाती थी
वो छोटी सी बारिश की लहर में पार होने का डर
वो भीग जाने पर घर में घुसते हुए माँ की डांट का डर
वो गरम चाय की चुस्की पकोड़ों की प्लेट और चटनी का साथ
वो ही मिटटी जिसे पांव में लग जाने पर मैं मन ही मन गुस्साता था
और उन टूटी सडको के पूरा न होने पर प्रशासन पर चिल्लाता था
वो काल्पनिक नदियाँ जो सिर्फ बारिश में प्रकट होती थी
और मेरी कार को शीशों तक रोज भिगोती थी
वो भगवान् का जाप जो मैं सच्चे ह्रदय से करता था
प्रभु आज घर पहुंचा दो बस मन यही जपा करता था
पर हर किसी बार उन व्यवस्थाओ के और अच्छा होने की आरज़ू होती थी
जो नहीं है यहाँ जिसे ढूंडा करता हूँ वो ये कि
मेरे देश की बारिश में मेरी मिटटी की सोंधी खुश्बू होती थी
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पुष्पेश पाण्डेय
अक्टूबर 9 2011 Houston
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