जिंदगी क्या है,
मसला है एक उलझा हुआ
या फिर कुछ उलझे रिश्तों के ताने बाने का
जो सुलझता भी है फिर उलझता, और फिर सुलझता सा दिखाई पड़ता है
जाने क्या सोचता हूँ
सुलझाने बैठता हूँ इसे जितना
उतना ही उलझ जाता हूँ
आज फिर जब इसे सुलझाने बैठा, फिर उतना ही उलझ गया
याद आती है बचपन की पतंग वाली वो चरखी
जिसमे डोर अक्सर उलझ जाया करती थी
सुलझाने की लाख कोशिश करता था उसको
पर वो कोशिश हर बार एक नयी कोशिश की वजह दे जाती थी
जिंदगी कहीं वही चरखी तो नहीं
या वो एक पहिया है साइकिल का
जो चलता रहता है, घूमता रहता
जब तक उसका सफ़र पूरा नहीं होता
और गर रुक गया तो फिर नए सफ़र की तलाश में निकल पड़ता है
समझ नहीं पाया हूँ कि जिंदगी क्या है
लगता है मसला एक उलझा हुआ...........
पुष्पेश पाण्डेय, फरवरी 8
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