कौन
कम्बखत कहता है कि
इश्क़ मुकम्मल नहीं होता
उस आशिक़ से पूछो
जो रोज़ इश्क़ की
पायदान पे चढ़ता है
रोज
गिरता है गिर के
उठता है ख्याल में
हमसफ़र के अपने
रोज
एक नया ख़्वाब का
आशियाँ बुन इश्क़ में
आगे बढ़ता है
रोज
रोज जो ग़म के
गर्त मैं गोते न
लगाए तो क्या ख़ाक
इश्क़ किया
रोज
रोज जो ग़म के
गर्त मैं गोते न
लगाए तो क्या ख़ाक
इश्क़ किया
इश्क़
तो सजदा है पीर
का प्रेम है मीरा का
या दीवानगी है खुसरो की
जब ये दुनिया वाले
उन्हें न समझ सके
तो आप यार किनसे
उम्मीद जगाये बैठे हैं
ये तो फन है
उन दिलवालों का जो रोज
टूटते जुड़ते सपनो में भी
ख्याल
बुना करते हैं, जीते
हैं लम्हे जो गुजरेंगे कभी,
सोते हैं तो महबूब
का दीदार कर
और फिर सुबह
उठकर उसी का अक्स
देख उसका दामन थाम लेते हैं
जमाना
उन्हें दीवाना कहता है और
उसी तरह उनके बदइंतज़ाम
करता है
फिर
चाहे सूर का दोहा
हो मीरा
का भजन या अमीर
खुसरो की दीवानगी
जनाब
आशिक़ी भी भला कभी
इस दुनिया को गवार गुज़री
है
चिनवा
दिए गए कई इमारतों
में तो कई दौलतों
की भेंट चढ़े
जो न निपटे उन्होंने
ख्वाब बुने वो ख्वाबों
की नगरी दौड़ चले
मेरा
इश्क़ तुम्हारे लिए बेशकीमती था
कीमत लग न सकी
उसकी
तो उसे सहेज के
दिल की तिजोरी में
बंद कर रख छोड़ा
है
किसी
कंजूस बनिए की तरह
अपनी वो दौलत सहेज
के रखता हूँ
जब भी गिनता हूँ
उसे कभी अकेले महफूज
तन्हाई में
हर बार बढ़ा हुआ
ही पता हूँ खुश
हो जाता हूँ ये
देख
के दौलत कम नहीं
हुई थोड़ी भी ,जब
करो हिसाब ये बेहिसाब बढ़ती
जाती है
रंग
चढ़ सका न दुनिया
का जिस रंग पे,
उस रंग से मैंने
तेरी मोहब्बत को भिगो दिया
है
सुना तो है
पर कौन कम्बखत कहता है कि
इश्क़ मुकम्मल नहीं होता
आ के देखो दुनिया
आशिक़ की, कि किस
ख़ूबसूरती से इसे मुकम्मल किया है
पुष्पेश पांडेय
23 दिसंबर 2020
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