हडसन नदी के किनारे खड़े इस मैनहैटन शहर की १०० मंजिली इमारतें देख अक्सर सोचता हूँ...
इनसे ऊँची तो
वो चार मंजिला छत की
मुंडेर थी जिसके
किनारे खड़े हो
दुनिया दिखा करती
थी हमें
या फिर इन
बहुमंजिला इमारतों के मल्टी
बेडरूम्स से अच्छा
तो वो एक
छोटा सा कमरा था
जिसके छोटे पलंग
पे नींद भी
अच्छी थी और
जिसमे देखे सपने
इस दुनिया से
कही सुन्दर होते
थे
उन सपनों की रिमझिम बौछारों से जो सतरंगी इन्द्रधनुष बनाया था
उस इन्द्रधनुष के रंगो को जीवन के लू के थपेड़ों ने धुन्दला सा बना दिया
कभी कीचड़ के
पानी में छटपटाती हुई उस सुनहरी
मछली को देखा
है
जो पानी की
वजह से जिन्दा
भी है और कीचड़ से निकल
भी नहीं पाती
जिंदगी भी कुछ
वैसे ही हो
गयी है जो
जीवन की आपा-धापी से निकल
नहीं पाती
और सामने जो जीवन
रुपी सागर की
लहरें पुकारती हैं
उनमे समां भी
नहीं पाती
एक लहर जो
पानी की कभी
आ के उस कीचड़ को धो
सी जाती है
फिर से सपने
बुनने लगता है
मन जैसे फिर
उसी छोटे से
पलंग पे चैन
की नींद आ
गयी हो उसे
और फिर वही
जीवन की आपा-धापी का चक्र
शुरू हो जाता
है
आज भी जब
हडसन नदी के
किनारे मैनहैटन शहर की
१०० मंजिली इमारतें
देख अक्सर
सोचता हूँ
पुष्पेश पाण्डेय
29 जून 2016
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