Sunday, October 9, 2011

मेरे देश की मिटटी की सोंधी खुश्बू

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सुबह सुबह बारिश की दस्तक से किवाड़ खोला
देखा कुछ बूदें ताजगी भरी बिजली के तारों पे सिमटी थी
फिर कहीं से एक बूँद आती उनमे जुडती
एक छोर से दूसरे छोर तक स्वतंत्र विचरती
और फिर एक टप की आवाज कर नीचे गिर जाती
जीवन की इस उठा पटक का जीवंत वर्णन कर जाती

खड़ा रहा कुछ देर यूँ ही उस बारिश में
जाने क्या ढुन्द्ता सूंघता गुनगुनाता खोजता
पर वो मिटटी की खुशबु नहीं मिल पाई

हाँ कुछ बड़ी इमारतों से गुजरते बादलों की घटा
कुछ गरजते बरसते बादलों की आवाज
और उन बड़ी बड़ी इमारतों के बीच से गुजरती उन हवाओं का शोर
सभी कुछ था बस एक वो मन जो भाग रहा था देश की ओर

वो मिटटी के घर वो बारिश वो खेत वो घटायें
उसमें नहाते वो छोटे बच्चे सारी दुनिया से दूर अपने ही जग को हाथ में समेटे
वो जो उनकी नाव नहीं जीत पाती थी या बारिश की कोई बड़ी बूँद उसे डूबा जाती थी
वो छोटी सी बारिश की लहर में पार होने का डर
वो भीग जाने पर घर में घुसते हुए माँ की डांट का डर
वो गरम चाय की चुस्की पकोड़ों की प्लेट और चटनी का साथ

वो ही मिटटी जिसे पांव में लग जाने पर मैं मन ही मन गुस्साता था
और उन टूटी सडको के पूरा न होने पर प्रशासन पर चिल्लाता था
वो काल्पनिक नदियाँ जो सिर्फ बारिश में प्रकट होती थी
और मेरी कार को शीशों तक रोज भिगोती थी
वो भगवान् का जाप जो मैं सच्चे ह्रदय से करता था
प्रभु आज घर पहुंचा दो बस मन यही जपा करता था

पर हर किसी बार उन व्यवस्थाओ के और अच्छा होने की आरज़ू होती थी
जो नहीं है यहाँ जिसे ढूंडा करता हूँ वो ये कि
मेरे देश की बारिश में मेरी मिटटी की सोंधी खुश्बू होती थी
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पुष्पेश पाण्डेय
अक्टूबर 9 2011 Houston

Saturday, August 6, 2011

काँच के प्यालों में अक्सर कुछ कुरेदा करता है

काँच के प्यालों में अक्सर कुछ कुरेदा करता है
लिखता था कभी, ऐसा लोग कहते अब तो गम ग़लत करता है
मैने देखा नहीं, मुझे मिला नही वो कभी
पाता था अक्सर उसे साथ बैठे, वहीं महखाने मैं
ह्म्प्याला बनता हसता मुस्कुराता, अक्सर खुशी से मुह चिड़ाता
यूँ दिखता नहीं मिलता भी नही, पर अक्सर जब प्याला भर जाता
कही छलक ना जाए, जाम गिर ना पड़े ये सोच ज्यों ही उसे होठों से लगता
जाम के अंदर जाते ही, वो फिर सामने आ जाता वैसा ही हसता मुस्कुराता
हम घनटों बैठे बतियाते, बीते 7 मिनटों में 7 जन्मों के किससे सुनाते
मैं सुनता नही, बातों बातों मैं अक्सर उसके हाथो पे नज़र गडाता
कही कुछ लिख ना दे, ना मैं भूल जाउ कहीं,, जहन में बस यही एक ख़याल आता
मैं भी बैठता रहता एकटक निगाह डाले उसे, हम रहते साथ मैं जब तक वो घर ना जाता
या फिर जब तक साकी ना सहारा दे मुझे उठाता या फिर वो कोचवांन घर छोड़ जाता
अगली शाम जब बाज़ार जाता तो फिर वही आवाज़ आती
कल जनाब तशरीफ़ लाए थे ओर कुछ नशीले नज़म सुनाए थे
खोजता रहता होश में, पर वो कम्बख़्त तो दो प्यालो के बाद ही आता
आज खाली प्याला ले के बैठा सूखा सा दीवाना बन, पर वो ना आया
कही प्याले मैं तो नही जा बैठा मेरा दोस्त, ये सोच प्याले मैं हाथ घुमाया
आवाज़ आई एक टूटने की जानी पहचानी सी, लगा यूँ की खुद से हाथ मिलाया है
जा पहुँचा हकीम के दर तो सुना की कोई नया मजमून आया है
आज गोया जनाब थे होश मैं तो खून से ही कुछ लिख फरमाया है
वरना लिखता तो नही काँच के प्यालों में अक्सर कुछ कुरेदा करता है

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पुष्पेश पांडेय Aug 6th 2011

Wednesday, May 11, 2011

जब रात के आगोश में सन्नाटा अक्सर सो जाता है

जब रात के आगोश में सन्नाटा अक्सर सो जाता है

उठती है कसक सी एक आहट की, जैसे तुम आये हो

वो रेशमी चांदनी बिखेरे यादें तब घर कर जाती हैं

बंद आँखों से जागते हुए ख्वाब में अक्सर मुस्कुराता हूँ

वो खोया वक़्त जो पीछे कहीं छूट गया

फिर उस रात की चांदनी में लिपटा चारों ओर बिखर जाता है

यूँ ही ख्वाब में जागते हुए अक्सर रात गुजर जाती है

और फिर एक नयी सुबह फिर मिलने का वादा दे चली आती है

उठकर बैठता हूँ सोचता हूँ अक्सर आँख मलता कि ख्वाब है क्या ये

या ख्वाब था वो, जो मैंने देखा था तब

जब रात के आगोश में सन्नाटा अक्सर सो जाता है



पुष्पेश May 12, 2011