Sunday, December 19, 2010

सोच रहा हूँ मैं उसे नाम क्या दूँ

वो जब दरवाजे पे तुमने एक रोज दस्तक दी थी
यूँ लगा जिंदगी मिल गयी है
ख्वाबं हो गए हैं पूरे
एक नयी रौशनी सी मिल गयी है

फिर एक वो दिन भी आया, जब तुम कुछ यूँ रूठ के गए
नाराज हो हमसे यूँ मुड़े, कि पलट के देखा भी नहीं
आवाज को एक तुम्हारी तकता रहा मैं
पर तुम जो गए एक बार कि फिर न आये

फिर अरसे बाद एक आवाज जो तुमने दी
तो लगा पूस की अमावस रात में
चाँद सा एक निकल आया हो जैसे

जिंदगी थी फिर वही
थी खुशियाँ और वही सपने
हाथ थामे मेरा तुम जो साथ बैठे थे

उसी ख़ुशी के बीच में
किलकारी की एक आवाज सी आई
यूँ लगा जिंदगी मिल गयी है
ख्वाबं हो गए हैं पूरे
एक नयी रौशनी सी मिल गयी है

नाम नहीं दिया इस किलकारी को अभी, सोचा भी नहीं
धुन्दता हूँ, सोचता और फिर पेशानी (forehead ) पे लकीरें जोड़ता
कि जो रिश्ता बन गया है दिल का, उसे आवाज क्या दूँ
सोच रहा हूँ मैं उसे नाम क्या दूँ
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Pushpesh 19 Dec 2010