Tuesday, January 26, 2010

माँ

जन्म लेते ही पहला शब्द यही बोला था
सुख हो या दुःख उसके ही पालने में झूला था

मैं हमेशा ही कुछ न कुछ मांगता रहता
वो हस्ती और जो भी मांगता मुस्कुरा के हाथ में ला देती
कभी सोचता कि जो मांगे वो मिले ऐसी भी क्या माँ के पास जादू की छड़ी है
लाख ढूँढता पर समझ न आता की माँ की किस अलमारी क कोने मैं पड़ी है

रात हो या दिन माँ को सोते नहीं देखता
सोचता था कि हम माँ के बच्चे ही सोते हैं
माँ लोग तो सिर्फ़ प्यार करने के लिये होते हैं
कभी रात को नीद खुलती भी तो, हमेशा मुझे ठण्ड से बचाती दिखती
चादर, रजाई या कभी कम्बल उड़ाती दिखती

कभी उसे खुद के लिये कुछ मांगते या कुछ खुद के लिये करते नहीं देखता
फिर भी वो हमेशा हँसती हमेशा मुस्कुराती रहती
धूप हो या छाँव हमें अपने गले से लगाती दिखती
हमारी ख़ुशी मैं खुश हो जाती हमें चोट लगे तो वो आंसूँ बहाती दिखती

हम शायद बड़े हो गए काफी बदल गए पर वो आज भी न बदली है
जाने किस मिट्टी की बनी है वो, जहां के लोग सारे लगते उसे अपने ही बच्चे हैं
चाहे कितनी बुराई हो हममे पर हम आज भी लगते उसे अच्छे हैं
हिन्दू रोये या मुस्लिम उसकी आँख आज भी छलक आती है
कोई भी बच्चा हँसता है वो उसके साथ आज भी मुस्कुराती है

जादू की छड़ी तो नहीं, पर शायद जिस मिट्टी से वो बनी उसमें ही एक करिश्माई है
आज भी चोट लगने पर जो पहला शब्द निकलता है, उस माँ शब्द में ही सारी सृष्टि समाई है

पुष्पेश, 26 जनवरी 2010

1 comment:

Panksuman said...

Very nice...sach much dil se likha lagta hai