Monday, May 11, 2015

आज भी जब कभी ख्वाबों के कारवाँ से, गुजरता हूँ जब कभी उस महल्ले की तंग गलियों में...............


आज भी जब कभी ख्वाबों के कारवाँ से, गुजरता हूँ जब कभी उस महल्ले की तंग गलियों में
ऐसे ही खाली बैठा या यूँ ही किसी कारोबार के सिलसिले में
तुम तो नहीं मिलते, हाँ वो पुराना खम्बा अक्सर वहीँ खड़ा मिलता है
जिसपे टेक के कभी अपनी मोटरसाइकिल हम मामू की चाय पिया करते थे
वो खम्बा आज भी वही खड़ा अपनी टिमटिमाती रौशनी पे इतराता है
यूँ तो वक़्त की डोर थामे रुका है वो तबसे, वक़्त भी आगे जाने क्यू बड़ा नहीं
पर उस खंबे को देख सालों के गुजरने का अंदाज़ा सा होता है
बूढा हो गया है अब, तारें भी सारी ढीली पड़ गयी हैं
जंग खा गया है जगह जगह से और ऐठन से कमर भी झुक सी गयी है
रस्सी जल गयी पर अभी बल नहीं गया, आज भी मिलता है तो दाढ़ें निपोर कहता है
इंसान हो इसीलिए वक़्त रुका बैठे, मैं तो इंतज़ार में ही खड़ा खड़ा बूढ़ा हो चला
वक़्त की डोर थामे बैठा रहा, वक़्त बीत गया पर वो मिलने तलक न आई
एक तुम ही हो जो अक्सर आईने में , खुद को तलाश करते चले आते हो यादों का दामन थामे
गुज़रते हो अक्सर आज भी यादों के कारवां से, इस पुराने महल्ले की तंग गलियों में

पुष्पेश पाण्डेय
मई 11, 2015