Monday, June 29, 2015

हडसन नदी के किनारे खड़े इस मैनहैटन शहर की १०० मंजिली इमारतें देख अक्सर सोचता हूँ................

हडसन नदी के किनारे खड़े इस मैनहैटन शहर की १०० मंजिली इमारतें देख अक्सर सोचता हूँ...
इनसे ऊँची तो वो चार मंजिला छत की मुंडेर थी जिसके किनारे खड़े हो दुनिया दिखा करती थी हमें 
या फिर इन बहुमंजिला इमारतों के मल्टी बेडरूम्स से अच्छा तो वो एक छोटा सा  कमरा था
जिसके छोटे पलंग पे नींद भी अच्छी थी और जिसमे देखे सपने इस दुनिया से कही सुन्दर होते थे
उन सपनों की रिमझिम बौछारों से जो सतरंगी इन्द्रधनुष बनाया था 
उस इन्द्रधनुष के रंगो को जीवन के लू के थपेड़ों ने धुन्दला सा बना दिया

कभी कीचड़ के पानी में छटपटाती हुई उस सुनहरी मछली को देखा है
जो पानी की वजह से जिन्दा भी है और कीचड़ से निकल भी नहीं पाती
जिंदगी भी कुछ वैसे ही हो गयी है जो जीवन की आपा-धापी से निकल नहीं पाती
और सामने जो जीवन रुपी सागर की लहरें पुकारती हैं उनमे समां भी नहीं पाती
एक लहर जो पानी की कभी के उस कीचड़ को धो सी जाती है
फिर से सपने बुनने लगता है मन जैसे फिर उसी छोटे से पलंग पे चैन की नींद गयी हो उसे
और फिर वही जीवन की आपा-धापी का चक्र शुरू हो जाता है
आज भी जब हडसन नदी के किनारे मैनहैटन शहर की १०० मंजिली इमारतें देख अक्सर सोचता हूँ

पुष्पेश पाण्डेय 
29 जून 2016

Monday, May 11, 2015

आज भी जब कभी ख्वाबों के कारवाँ से, गुजरता हूँ जब कभी उस महल्ले की तंग गलियों में...............


आज भी जब कभी ख्वाबों के कारवाँ से, गुजरता हूँ जब कभी उस महल्ले की तंग गलियों में
ऐसे ही खाली बैठा या यूँ ही किसी कारोबार के सिलसिले में
तुम तो नहीं मिलते, हाँ वो पुराना खम्बा अक्सर वहीँ खड़ा मिलता है
जिसपे टेक के कभी अपनी मोटरसाइकिल हम मामू की चाय पिया करते थे
वो खम्बा आज भी वही खड़ा अपनी टिमटिमाती रौशनी पे इतराता है
यूँ तो वक़्त की डोर थामे रुका है वो तबसे, वक़्त भी आगे जाने क्यू बड़ा नहीं
पर उस खंबे को देख सालों के गुजरने का अंदाज़ा सा होता है
बूढा हो गया है अब, तारें भी सारी ढीली पड़ गयी हैं
जंग खा गया है जगह जगह से और ऐठन से कमर भी झुक सी गयी है
रस्सी जल गयी पर अभी बल नहीं गया, आज भी मिलता है तो दाढ़ें निपोर कहता है
इंसान हो इसीलिए वक़्त रुका बैठे, मैं तो इंतज़ार में ही खड़ा खड़ा बूढ़ा हो चला
वक़्त की डोर थामे बैठा रहा, वक़्त बीत गया पर वो मिलने तलक न आई
एक तुम ही हो जो अक्सर आईने में , खुद को तलाश करते चले आते हो यादों का दामन थामे
गुज़रते हो अक्सर आज भी यादों के कारवां से, इस पुराने महल्ले की तंग गलियों में

पुष्पेश पाण्डेय
मई 11, 2015

Saturday, February 7, 2015

ये ख़ुशी के आसूं क्या होते हैं ..................


बैठे थे यूँ ही हाथों में  हाथ लिए, यादों की किश्ती थामे घूम रहे रहे थे जब बागों में
एकाएक उसने बोला मुझसे इक दिन, तुम्हे तो सब याद है न, सब पता रखते हो
तो बूझो जरा और एक बात बताओ भला मुझको, के ये ख़ुशी के आसूं क्या होते हैं

मैंने कहा: सवाल तो दुरुस्त है, पर इसका जवाब भी एक सवाल ही तो है
अच्छा बताओ, कि क्या कभी अकेले में खुद को मुस्कुराते देखा है
या देखा है क्या कभी खुद को, उन यादों का ताना बाना बुनते
पाया है क्या खुद को कभी अकेले, पुराने गुज़रे वक़्त से खुद ही बतियाते
जिया है क्या कभी कोई हँसता गुदगुदाता लम्हा, यूँ ही अकेले में खुद ही मुस्कुराते
सोचा है क्या वो सुनाया था जो इक पुराना  लतीफा कभी
जो तुम्हें अक्सर ही हँसा देता था या यूँ कहो के आज भी हँसा देता है
पढ़ा है यादों में कभी आज भी वो ctrl +del किया हुआ खत जो आज भी एक कमसिन हसीं दे जाता है
कभी कोई सिनेमा, दोस्त, यार  या कोई रिश्तेदार किसी हरकत मैं देखा है किसी को सामने  खड़े पाते

आँख बड़ी कर उसने अचरज से कहा हाँ तो, ये तो अकेले अक्सर ही होता है
मैं ही क्या जब भी कोई अकेले बैठा, टटोलता है बीते लम्हों को या जब कभी परवान जिंदगी का कोई चढ़ता है
ऐसा ही  होता है, मेरे ही नहीं सबके ही साथ  भला इसमें जवाब क्या है

मैंने कहा: जब अगली बार मुस्कुराओ  अकेले बैठे ,तो आँख बंद कर एक साँस लेना
उस जाती हुई साँस के संग आँखों मैं एक नमी सी जो पाओगे, जवाब इस सवाल का खुदबखुद समझ जाओगे
बैठे थे यूँ ही हाथों में  हाथ लिए, यादों की किश्ती थामे घूम रहे रहे थे जब बागों में.......................


पुष्पेश पाण्डेय
फ़रवरी 8, 2015