Saturday, May 3, 2014

एक लम्हां चुराया है चन्द बीते हुए लम्हों से ....


एक लम्हां चुराया है  चन्द बीते हुए लम्हों से
कुछ लम्हे जो बदले नहीं कभी
या यूँ कहो कि वक़्त वहीँ क़ुछ थम सा गया है
जाता हूँ अक्सर वक़्त के अन्धेरे गलियारों में
उन चन्द लम्हों की जलती मशाल लिये
घूमा करता हूँ उन बंजर वीरान मैदानो में
जिनमें कभी जान थी, जो दिखतीं है अक्सर उन लम्हों की रौशनी में
फिर चाहे वो कभी टेकरी की पहाड़ी हो
या फिर वो सीड़ियाँ जो लाइब्रेरी तक जातीं थीं
जहा हम यार साथ बैठे ठहाके लगाते थे
कभी खुद को तो कभी ओरों को देख मुस्कुराते थे
जब कभी उस बड़ी झील से गुजरता हूँ तो सोचता हूँ
ये जो पानी से भरी अपने नीले रंग की चादर ओढ़े समन्दर को मुँह चिढ़ाती थी
आज उसका रंग भीे अकेलेपन से स्याह सा पड़ गया है
यूँ तो काफी वक़्त भी हो चला, इन बरसों में काफी कुछ बदल गया
जो छोटे से पौंधे लगाये थे तब, अब वो बड़े पेड़ बन गये हैं
हाँ कुछ नहीं बदला तो बस वो वक़्त या युं कहो कि वो लम्हां
वो एक लम्हां जो चुराया है चन्द बीते  हुए लम्हों से .......

पुष्पेश पाण्डेय
May 3rd