Saturday, June 26, 2010

किसान कि अभिलाषा

आसमान की ओर तकते उस किसान का चेहरा उदास है
कभी हरी भरी इस धरती को फिर से कुछ बूंदों की आस है

लगी हैं आसमान में आँखे कि कब ये बादल गरजेंगे
फिर लहलहायेंगी वो फसलें झूम के घटा सावन बरसेंगे

वो मां देखती हैं आसमान में कि कब वो बारिश होगी
कब उसके बच्चो की थाली में चावल और डाली होगी

रुके हुए हैं झूले सावन के पर यौवन कहा रुकता है
उस किसान बाप के चहेरे पे लड़की की उम्र का दर्द छलकता दिखता है

तांडव है ये प्रकृति का या इस मानव जाती को कोई अभिशाप है
इस अभिशाप के रावण का नाश कर जो प्रकृति को प्रसन्न करे मुझे उस राम की तलाश है

यदि इस पर भी वृक्षों को काटता वनों को उजाड़ता मानव रूपी रावण सोता रह जायेगा
डरता हूँ क्या हमारे बीच में वो राम कभी आ पायेगा
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पुष्पेश
26 June 2010